ज़िंदगी

अरे सुनो… हाँ तुम … ज़िंदगी

अजीब हो तुम

याद है…हम दोस्त हुआ करते थे

बचपन के दिन थे शायद…

फिर न जाने क्या हुआ तुम्हें

मेरी स्कूल की टीचर जैसी हो गयी तुम

हर मोड़ पे इम्तिहान लेने लगी

और हर बार का सबजेक्ट अलग

कभी तुम मेरी पसंदीदा टीचर बनी

काफ़ी कुछ सिखाया मुझे… प्यार से

कभी उस ग़ुस्सैल टीचर की तरह

जिसने तैयारी का टाइम भी नहीं दिया

शिकायतें भी बहुत की तुमसे

“उसका पेपर मेरे पेपर से आसान क्यूँ?”

तब हँसते हुए कहा था तुमने

“उसका कोई और पेपर तुम्हारे वाले से मुश्किल है”

कुछ दिन गरमियों की छुट्टियों से भी हुए

इम्तिहान तो नहीं थे

लेकिन हॉलिडे होम्वर्क बहुत दिया तुमने

पूरा करते करते कमर टूट गयी

तुमसे कभी फिर से दोस्ती होगी या नहीं

कहना मुश्किल है

लेकिन कोशिश जारी है

तुमसे जान पहचान करने की

एक सवाल और पूछा था तुमसे

“कब तक लेती रहोगी इम्तिहान?”

तुमने फिर उसी मुस्कुराहट के साथ कहा

“एक दिन सासों का काग़ज़ छीन लूँगी झटके से…बस तब तक”

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